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कलाम
आतिश-ए-ग़म किस के बस की है जो मेरे बस की होऔर भड़का लूँ अगर उस को बुझा सकता हूँ मैं
कामिल शत्तारी
कलाम
मिटा गुलशन तो उठ कर ख़ाक-ए-गुल से हम कहाँ जातेजहाँ गुलशन था पहले अब वहीं पर है मज़ार अपना
मयकश अकबराबादी
कलाम
ये दुनिया-ए-मजाज़ आईना-ख़ाना है हक़ीक़त काछुपा कर अपनी सूरत फेंक दी हैं अपनी तस्वीरें
सीमाब अकबराबादी
कलाम
शकील बदायूनी
कलाम
कामिल शत्तारी
कलाम
मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और हैसर-ए-आईना मिरा 'अक्स है पस-ए-आईना कोई और है
सलीम कौसर
कलाम
मैं तुझ को ग़ैर समझता था और ख़ुद को और समझता थापर चश्म-ए-ग़ौर से जब देखा तू और नहीं मैं और नहीं
इम्दाद अ'ली उ'ल्वी
कलाम
बारगाह-ए-हुस्न का 'काविश' यही दस्तूर हैचूम ले क़दमों को बढ़ कर और ज़बाँ से कुछ न बोल
अब्दुल हादी काविश
कलाम
रख दिया क्या सोच कर साक़ी ने दे कर जाम-ए-मयमस्त कर दे बे-पिए वो दौर-ए-साग़र और है